वाराणसीः बनारस की मेहनतकश आबादी खासकर बुनकरों को संगठित-जागृत और गोलबंद करने के क्रम में फ़ातिमा-सावित्री जनसमिति की ओर से स्वयंवर वाटिका में आयोजित कार्यक्रम में स्वयं बुनकरों ने उपस्थित होकर अपनी बदहाल जिंदगी की करुण दास्तान पेश की।
पॉवर लूम पर अपने परिवार के साथ काम करने वाले मोहम्मद अहमद अंसारी ने बताया कि बाजार पर पूँजी और दलालों का कब्जा होने के कारण बुनकरी के काम में लगे लोगों की वास्तविक मज़दूरी 400 रुपये भी नहीं है, जितनी कि निर्माण क्षेत्र के मज़दूरों की है। इसी क्रम में मुस्लिम आबादी के सामाजिक पिछ़ड़ेपन, स्त्रियों की तुलनात्मक रूप से अधिक खराब दशा की पृष्ठभूमि में शिक्षा का प्रश्न भी उठा। श्री अहमद ने कहा कि जब मज़दूरी-आमदनी ही इतनी कम है तो पहले भरण-पोषण की चिंता करें या कि पढ़ाई-लिखाई की। बेहद खराब माली हालत के चलते बुनकरों के बच्चे मदरसों में जाकर पढ़ने के लिए मज़बूर हैं।
उत्पादक शक्तियों के पैरों में पड़ी बेड़ियों को तोड़कर इतिहास को अग्रगति देने वाली शक्ति यानि कि मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के साथ खड़े तमाम बुद्धिजीवियों ने भी अपने तीक्ष्ण प्रेक्षण से उपस्थित-जन को अवगत कराया। भगत सिंह छात्र मोर्चा के विनय ने कहा कि अत्यल्प मज़दूरी के साथ ही शिक्षा का प्रश्न भी शासक वर्ग के शोषक-उत्पीड़क राजकीय ढाँचे से जुड़ा हुआ है। उन्होंने कहा कि आज शासक वर्ग शिक्षा को भी बाजार में खरीदा-बेचा जाने वाला माल बनाए हुए है। अगर हमें इस स्थिति में सार्थक हस्तक्षेप करना है तो हमें राज्य के चरित्र को प्रमुखता से उठाना है।
जनवादी विमर्श मंच के संयोजक हरिहर प्रसाद ने कहा कि नई शिक्षा नीति संयुक्त राष्ट संघ के सतत विकास एजेंडे को अमल में लागू करने के लिए लागू की जा रही है। इसके तहत देसी-विदेशी पूँजीपतियों के लिए सस्ते व कुशल श्रमिक तैयार करने पर जोर दिया जा रहा है। इसके चलते उच्च शिक्षा महंगी हो जाएगी। सभी के लिए समान व निःशुल्क शिक्षा की पुरजोर हिमायत करते हुए उन्होंने कहा कि अगर इसका विरोध नहीं किया गया तो गरीबों-वंचित तबके के बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित हो जाएंगे और केवल अमीरों के बच्चे ही ऊंची शिक्षा हासिल कर पाएंगे।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए कवि-आलोचक डॉ. वंदना चौबे ने कहा कि साम्राज्यवादी महाप्रभुओं ने अकूत पूँजी खर्च करके अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से खोल देने के पक्ष में माहौल बनाया। सांस्थानिक बुद्धिजीवियों को खंडीकरण की वैचारिकी का कायल बनाने और उसे प्रचारित करने के लिए अनेकशः रूपों में लाभान्वित किया। उन्होंने कहा कि मालिक-मज़दूर के मूल प्रश्न पर साजिशन पर्दा डालने हेतु मूल प्रश्न को परिधि के प्रश्नों से विस्थापित करने के लिए अस्मिता-विमर्श खड़ा किया गया। उन्होंने कहा कि स्त्री और शिक्षा का प्रश्न भी अर्थव्यवस्था में ठहराव-मंदी और बेरोजगारी की समस्या से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। शिक्षा के बाजारीकरण की समस्या को अगर हम हल करना चाहते हैं तो उसे हमें बेरोजगारी के सवाल से जोड़ना ही होगा।
फ़ातिमा शेख के जमाने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के समय में भारत का जो औपनिवेशिक ढाँचा था उसे वे अपने दम पर अकेले नहीं चला रहे थे। यहाँ की जो ब्राह्मणवादी ताकतें थीं, संपन्न लोगों की जो ताकतें थीं, जिनके पास संपत्ति थी, प्रभुत्व था, जाति की ताकत थी, उन सारी ताकतों के साथ उन्होंने गँठजोड़ किया। इतना आसान नहीं था उनके लिए भारत की जनता के साथ लोहा लेना। तो उन्होंने बड़े लोगों से गँठजोड़ करके अपना शासन यहाँ पर फैलाया और यहाँ की शिक्षा पर सबसे पहले प्रहार किया। उन्होंने कहा कि आजादी मिलने के बाद भी शिक्षा व्यवस्था में बहुत हद तक निरंतरता बनी रही। वर्तमान दौर को साम्राज्यवाद का दूसरा दौर बताते हुए उन्होंने कहा कि सरकारी संस्थानों को लेकर आजादी के बाद जनता में विश्वास था। सरकारी चीजों पर भरोसा था। लेकिन धीरे-धीरे 90 के दौर में यह भरोसा छीजने लगा। प्राइवेट के पक्ष में पूंजी की मदद से माहौल बनाया गया। हर सरकारी चीज पर अविश्वास प्रकट किया जाने लगा और इस तरह से नैरेटिव बनाया गया कि जनोपयोगी सेवाओं के सभी क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए खोल दीजिए। प्रचार और विज्ञापन का पूरा दौर आया और बताया गया कि पूँजीपतियों और कंपनियों के लिए सब कुछ खोल देने का नाम ही आजादी है। उन्होंने कहा कि जब शिक्षा-स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार के पास होती है तो उनकी खराब गुणवत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का हमारा हक़ होता है क्योंकि हम वोट देकर सरकार बनाते हैं। लेकिन जब उन्हें निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया जाता है तो हम बोल ही नहीं पाते हैं क्योंकि निजी क्षेत्र तो अपने मुनाफे के लिए ही सभी गतिविधियों को संचालित करता है। बुनकर-मुस्लिम बस्तियों से जुड़े अपने अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि सांप्रदायिकता का सवाल और उस पर बहस खाते-पीते मुस्लिमों के बीच की है। मज़दूर तो बस इस चिंता को व्यक्त-साझा करते हैं कि जिंदगी की गाड़ी को कैसे खींचें, कैसे अपने व अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करें।
दरअसल यह लोकतंत्र पूंजीपतियों का लोकतंत्र है। बाज़ार के सारे रास्ते खोलकर सारी टैरिफ और डियूटीज़ हटाकर सरकार पूंजीपतियों के लिए सारे दरवाज़े खोल चुकी है। यह नंगी प्रतियोगिता है। सरकार इसे ही लोकतंत्र कहती है। हमें लोकतंत्र की इस बुनियाद को समझना होगा। ज़ाहिर है कि हम लोकतंत्र के लिए ही लड़ेंगे लेकिन सरकार और पूंजीपतियों द्वारा थोपे गए लोकतंत्र को हम लोकतंत्र नहीं मानेंगे।
दिशा छात्र संगठन के अमित ने कहा कि देशा की शिक्षा व्यवस्था भारी परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है लेकिन इस परिवर्तन में भी निरंतरता का पहलू बना हुआ है। उन्होंने कहा कि अतीत की शोषणकारी व्यवस्था वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में भी अपनी निरंतरता लिए हुए है। मज़दूरों का खून पीने वाली, उनकी रक्त-मज्जा से मुनाफा निचोड़ने वाली इस पूँजीवादी व्यवस्था का बिना नाश किए जनपरक-विज्ञानकरक शिक्षा की व्यवस्था नहीं की जा सकती है। उन्होंने कहा कि शासन के जनद्रोही होने का सवाल आज भी उतना ही अहम बना हुआ है जितना कि अंग्रेजों के समय में था।
मज़दूर आंदोलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता पवन कुमार ने कहा कि इस पूंजीवादी बाजारवाद में शिक्षा जीवन की अन्य जरूरतों जैसे स्वास्थ्य, परिवार के परिवेश से, मकान, भोजन, कपडा आदि से अलग-थलग नहीं है बल्कि सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। शिक्षा केवल स्कूल और कालेजों में मिलने वाली औपचारिक शिक्षा ही नहीं है, बल्कि इस औपचारिक शिक्षा के साथ अनौपचारिक शिक्षा जन्म के साथ ही माँ- बाप से, परिवार के परिवेश से, आस पास के परिवेश से और परिवार के आर्थिक सामाजिक हालातों से मिलने लगती है और आज कल के वॉट्सऐप, फेसबुक, ट्विटर, इन्स्ताग्राम और अन्य सामाजिक मीडिया के माध्यम से यह अनौपचारिक शिक्षा लगातार दी जा रही है। औपचारिक शिक्षा में जहाँ उच्च शिक्षा केवल धनवानों और श्रम खरीदने वाले पूँजीवानों तक ही सीमित की जा रही है और अपना श्रम बेचकर जीविकोपार्जन करने वालों की पहुँच से दूर होती जा रही है, वहीँ प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक की औपचारिक शिक्षा केवल श्रम के खरीददारों पूँजीवानों धनवानों के कारखानों, घरों और संस्थानों में श्रम बेचने वाले नौकर पैदा करने तक सीमित है और उसी उद्देश्य से दी जा रही है। उन्होंने कहा कि इसी व्यवस्था में जन साधारण अर्थात श्रम बेचकर जीवन निर्वाह करने वालों के भी अच्छे दिन आ जायेंगे, इससे बड़ा झूठ और भ्रम दूसरा नहीं है।
उन्होंने आज की पूंजीवादी राजसता, अस्मिता-विमर्श (पिछड़ावाद, जातिवाद, नारीवाद, क्षेत्रवाद आदि) को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि शासक वर्ग चाहता है कि जन सामान्य के अर्थात मेहनतकशों के मुद्दों को गायब कर दिया जाए। तभी तो वह पूँजी बनाम श्रम के मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए अरबों डालर एनजीओ-जगत को देकर फर्जी मुद्दों को केंद्र में लाने का प्रयास करता रह है। उन्होंने कहा कि शिक्षा के लिए अन्य समस्यायों के साथ समेकित रूप से लड़ने की आवश्यकता है।
सामाजिक कार्यकर्ता एडवोकेट शहजादे ने कहा कि सामाजिक चेतना के बगैर ज्ञान की प्रक्रिया चल ही नहीं सकती किसी भी ब्रेन को परिपक्व होने में 18 साल लगते हैं इसी दौरान धार्मिक पूर्वाग्रहों जातिवादी भेदभाव पर आधारित शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व को बिगाड़ देती है। जबकि सामाजिक चेतना से लैस शिक्षा जो उत्पादन की पद्धति के अनुरूप होती है, वह ऐसे मनुष्य का निर्माण करती है जो सामूहिकता-सहकार की भावना से ओतप्रोत होता है।
उन्होंने कहा कि पूंजीपति अपने उद्देश्य को पूरा करने हेतु सामाजिक चेतना को नियंत्रित करने के लिए लंबे समय से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था में निरंतरता बनाए रखने का प्रयास करता है। ऑल इंडिया सेकुलर फोरम के डॉ. मोहम्मद आरिफ ने उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं के बीच पसरी भयंकर बेरोजगारी और अकिंचनता का चित्र उपस्थित करते हुए बताया कि बुनकरों की समस्या पर तो आए दिन अखबारों में बयान छपते रहते हैं, बिजली के फ्लैट रेट से जुड़ी मांग से हम भलीभाँति परिचित हैं लेकिन निजी स्कूलों-कॉलेजों में उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवान पाँच हजार महीने की नौकरी करने को अभिशप्त है। हाड़तोड़ शारीरिक श्रम के बरअक्स मानसिक श्रम करने वालों पर पहनावे-ओढ़ावे और व्यक्तित्व की समग्र प्रस्तुति को लेकर अतिरिक्त सामाजिक दबाव के हवाले से उन्होंने कहा कि तथाकथित उच्च-शिक्षा प्राप्त लोग भी संकटग्रस्त-ठहरावग्रस्त अर्थव्यवस्था की मार से उतने ही परेशान हैं जितना कि आम मज़दूर वर्ग।
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कार्यक्रम को ऐपवा की कुसुम वर्मा, बिहार निर्माण व असंगठित मज़दूर यूनियन के इंद्रजीत, स्वराज इंडिया के मो. अहमद अंसारी, उत्तर प्रदेश निर्माण व असंगठित मज़दूर यूनियन के इंद्रजीत, सामाजिक कार्यकर्ता प्रतिमा आदि ने भी संबोधित किया।