इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का प्रस्ताव, सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) की तथ्य-जांच की गयी सामग्री को हटाने को मजबूर करता है। झूठ का विरोध होना ज़रूरी है, लेकिन इसकी आड़ में निरंकुशता नहीं थोपी जानी चाहिए। आईटी नियमों में प्रस्तावित संशोधन इस तरह के निष्कासन के उद्देश्य से तथ्यों की जांच के लिए पीआईबी या केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत किसी भी अन्य एजेंसी के हस्तक्षेप का रास्ता खोलता है। मुक्त भाषण और सूचना के गहरे निहितार्थ के साथ, यह कई स्तरों पर समस्या पैदा करने वाला है। सबसे बुनियादी स्तर पर, पूछा जाने वाला सवाल यह है कि भारत सरकार की नोडल एजेंसी का एक विंग, जिसका काम सरकारी नीतियों, कार्यक्रमों, पहलों और उपलब्धियों पर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सूचना प्रसारित करना है, क्या तथ्यात्मक है और क्या नहीं, इस पर निर्णायक प्राधिकारी कैसे हो सकता है। एक इच्छुक पक्ष की भी जज की भूमिका निभाने की परेशान करने वाली बेरुखी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यह वास्तव में गलत सूचनाओं की एक बुरी दुनिया है, लेकिन किसी को यह सोचने के लिए भ्रम में रहना होगा कि सरकारों के पास कोई कारण नहीं है। अगर प्रस्ताव पर अमल होता है तो सरकार अपनी मर्जी से ‘सुपर सेंसरकर्ता’ के रोल में आ जाएगी। हालांकि यह प्रस्ताव समाचार और सूचना को विनियमित करने के मामलों पर प्रशासन की सोच में एक नए निम्न स्तर का संकेत देता है, लेकिन इससे पहले भी चीजें अच्छी नहीं थीं। हाल के वर्षों में सरकार ने पर्याप्त संकेत दिए हैं कि वह मीडिया क्षेत्र को नियंत्रित करना चाहती है। साल 2021 की शुरुआत में फिर से बनाए गए आईटी नियम इसका एक उदाहरण हैं। इसी तरह की मानसिकता डेटा गोपनीयता विधेयक के प्रावधानों में परिलक्षित हुई, जिसने सरकारी एजेंसियों को निरंकुश अधिकार दिया। फेक न्यूज से उचित तरीके से निपटा जाना चाहिए, लेकिन विचाराधीन प्रस्ताव केवल कार्य को और कठिन बना देगा। चौथे स्तंभ की स्वतंत्रता एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है।