ज्योतिबा फुले के जन्मदिवस (11 अप्रैल) के अवसर पर
आज ज्योतिबा फुले का जन्मदिवस है। ज्योतिबा फुले का पूरा जीवन जाति उन्मूलन और स्त्रियों की शिक्षा व मुक्ति के लिये समर्पित रहा। ज्योतिबा फुले को अपने संकल्प में पूरा विश्वास था। उस कठिन दौर में जबकि जातीय भेदभाव बहुत ज़्यादा था और स्त्रियों के लिये तो शिक्षा के दरवाज़े लगभग पूरी तरह से बन्द थे तब ज्योतिबा फुले ने इस संघर्ष में अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को साथ लिया। उन्होने सावित्री बाई को पढ़ना लिखना सिखाया। बाद में उनकी प्रेरणा से स्त्री शिक्षा के कार्य को हर उत्पीड़न सहकर भी सावित्रीबाई फुले ने नहीं छोड़ा। इसी तरह ज्योतिबा फुले विधवाओं के पुनर्विवाह के लिये न केवल ब्राह्मणवाद के खिलाफ़ खड़े हुये बल्कि विधवाओं के बाल कटने से रोकने के लिए नाइयों की हड़ताल आयोजित की। ज्योतिबा फुले द्वारा बाल विवाह का निषेध, विधवाओं के बच्चों का पालन-पोषण जैसे अनेक क़दमों से भी ज्योतिराव-सावित्रीबाई का स्त्री समानता, स्त्री स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण उद्घाटित होता है। स्त्री मुक्ति व जाति उन्मूलन के संघर्ष में फुले का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। आज हम सब जानते हैं कि स्त्री मुक्ति व जाति उन्मूलन आपस में गुँथे हुए हैं। जाति उन्मूलन के लिए अन्तरजातीय विवाह होने ज़रूरी हैं और वो तभी हो सकते हैं जब स्त्री मुक्त होगी। साथ ही स्त्री भी सच्चे मायनों में तभी स्वतन्त्र हो सकेगी जब जाति ख़त्म होगी। जातियों के समूल उन्मूलन का प्रोजेक्ट इस व्यवस्था को उखाड़कर एक समाजवादी व्यवस्था के निर्माण से ही मुकाम की तरफ ले जाया जा सकता है।
सामाजिक परिर्वतन के लिए ज्योतिराव फुले सरकार की बाट नहीं जोहते रहे। उपलब्ध साधनों से उन्होंने अपने संघर्ष की शुरुआत की। सामाजिक सवालों पर भी फुले शेटजी (व्यापारी) व भटजी (पुजारी) दोनों को दुश्मन के रूप में चिह्नित करते थे। जीवन के उत्तरार्ध में वे ब्रिटिश शासन व भारतीय ब्राह्मणवादियों के गँठजोड़ को समझने लगे थे। इसीलिए उन्होंने कहा था कि अंग्रेज़़ी सत्ता में अधिकांश अधिकारी ब्राह्मण हैं और जो अधिकारी अंग्रेज़़ हैं उनकी हड्डी भी ब्राह्मण की ही है। वो उन दलित मुक्ति के चिन्तकों से बहुत आगे आ गये थे जिन्हें अंग्रेज़ ‘मुक्तिदाता’ के रूप में नज़र आते थे। मजदूरों की दशा ज्योतिबा फुले से छिपी नहीं थी। ये गौरतलब है कि भारत में पहली ट्रेड यूनियन के निर्माण का श्रेय ज्योतिबा फुले के शिष्य नारायन मेघा जी लोखण्डे को जाता है।
आज जब संघी फासीवादी जातिप्रथा व पितृसत्ता के आधार पर व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से दलितों, स्त्रियों व अल्पसंख्यकों पर हमले तीव्र कर रहे हैं, खाने-पीने-जीवनसाथी चुनने व प्रेम के अधिकार को भी छीनने की कोशिश कर रहे हैं, तब फुले को याद करने का विशेष औचित्य है। ब्राह्मणवाद व पूँजीवाद विरोधी संघर्ष तेज़ करके ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है व उनके सपनों का समाज बनाया जा सकता है।
साभार : दिशा छात्र संगठन ,नौजवान भारत सभा