केशर सिंह बिष्ट
आजकल त्योहारों का मौसम है तो स्वाभाविक है बाज़ारों में खूब चहल-पहल है। पूजा-पाठ और घर के सामानों की खरीददारी से लेकर कपड़े, घड़ी, मोबाइल, कार व तमाम चीजों के बाज़ार में इस वक़्त खूब रंगत है। अर्थात आम जन उत्सव के रंग में डूब कर अपनी खुशियों को दुगुनी-चौगुनी आभा के साथ जश्न में डूबा हुआ है और निश्चित ही जश्न का यह रंग दीपोत्सव दीपावली तक और चटख हो जायेगा। उत्सव की यह चहल-पहल उफ़ान पर होगी।
बहरहाल, यह जिक्र इसलिए कि हर साल जब भी त्योहारों का मौसम शुरू होता है एक जुमला हमारे कानों में उत्सव के शोर को गहरे उदासी में बदल देता है कि ‘आम आदमी बहुत गहरे आर्थिक संकट में है। उसके पास रोजगार नहीं है। वह भयानक गरीबी के दौर से गुजर रहा है। उत्सव मनाना उसके बूते से बाहर है और गरीबी ने बाजार को इतना महंगा बना दिया है कि उसकी खुशियों की रौनक ही गायब हो गयी है।’ आदि-आदि।
त्योहारों के मौकों पर यह हर साल का खटराग है। अर्थात बात कहीं-न-कहीं गरीबी पर आकर टिक जाती है कि भारत में आम आदमी थोड़ी-बहुत तरक्की के बावजूद आज भी बहुत गरीबी में है और उसकी क्रय क्षमता (परचेजिंग पावर) पहले के मुकाबले लगातार घटी है।
लेकिन क्या यह धारणा वाकई उतनी सत्य है, जितना इस पर हर साल का शोर है। विगत कई वर्षों से इस पर निरंतर बहस जारी है…कि आम आदमी अभी भी गरीबी से बाहर नहीं निकला है। वह जैसे-तैसे करके अपने जीवन का निर्वाह कर रहा है।
लेकिन यह अंतिम सच नहीं है। सच यह है कि इस धारणा के विपरीत विगत लगभग डेढ़ दशक में आम आदमी के जीवन स्तर में व्यापक सुधार हुआ है और वह आर्थिक तंगहाली से पूरी तरह न सही, लेकिन काफी हद तक बाहर निकला है।
महंगे से महंगे मोबाइल से लेकर ऊंची सोसाइटियों में ऊंचे दाम के फ्लैट्स, गाड़ियों के बड़े-बड़े और महंगे ब्रांड्स ने विगत लगभग दो दशक में गरीबी की अवधारणा को मात देते हुए एक विशाल बाज़ार खड़ा किया है। यह दौर पूरी तरह बाज़ारवाद का दौर है और देश का आम आदमी महंगे मोबाइल से लेकर ब्राण्डेड चीजों से अपने जीवन की चकाचौंध में है।
यह पिछले दो दशक में बाजार का फलता-फूलता इतिहास है कि स्विगी, जोमैटो, सैमसंग, डी-मार्ट और सेकंड होम जैसे तमाम प्रयोगों ने विगत दो दशक में बाज़ार में आम आदमी की हिस्सेदारी का नया चमकदार अध्याय लिखा है। आम आदमी की संपन्नता की नयी कहानियों को रोशन किया है और गरीबी रेखा को काफी हद तक धुंधला दिया है।
कहना न होगा कि यह मात्र जुमला भर रह गया है कि भारत का आम नागरिक अब भी गरीबी की दलदल में है और उसका जीवन आर्थिंक अंधकार की गहरी खोह में है। यह धारणा हमारे मानस पटल पर वर्षों से छाई एक धुंध है, जिसे हटाने हम तैयार नहीं।
क्योंकि आम आदमी की संपन्नता ने विगत लगभग दो दशक में गरीबी रेखा को लांघ कर एक बड़ी छलांग लगायी है और जीवन के चटख रंगों को जीने की ताकत हासिल की है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी इस बात की तस्दीक करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 15 वर्षों के दौरान 41.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं।
अर्थात यहां 15 वर्षों (2005-06 से 2019-21) की अवधि के भीतर 41.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं।
और सिर्फ भारत ही नहीं भारत सहित 25 देशों ने 15 वर्षों में अपने वैश्विक एमपीआई मूल्यों (गरीबी) को सफलतापूर्वक आधा कर दिया। यह आंकड़ा इन देशों में तेजी से प्रगति को दर्शाता है। इन देशों में कंबोडिया, चीन, कांगो, होंडुरास, भारत, इंडोनेशिया, मोरक्को, सर्बिया और वियतनाम शामिल हैं।
यह आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि भारत का आम जन मानस गरीबी रेखा से बाहर निकला है और नये दौर ने उसके जीवन को रोशन कर उसके सामने जीने का एक नया फलसफ़ा रखा है।
कहना न होगा कि जिस गरीबी का हम रोना रोते हैं, वह हमारे भौतिक जीवन से ज्यादा हमारे दिमाग में बस गयी गहरी नकारात्मकता है। उम्मीद है हम शीघ्र इस मनोविकार से बाहर निकलेंगे।