ओलंपिक खेल- 2024 : हम कहां चूक जाते हैं पदकों से, क्रिकेट से कुछ सीखने की जरूरत

चंडीगढ़ : हमारे ज्यादातर खिलाड़ी ओलंपिक खेलों में जा कर पदक की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। फिर चाहे वो मिल्खा सिंह, गुरबचन सिंह रंधावा, श्रीराम सिंह, पीटी उषा या हमारे पहलवान, तीरंदाज़,  निशानेबाज, मुक्केबाज, भारोत्तोलक,या बैडमिंटन टीम के खिलाड़ी। हालांकि एथलेटिक्स को छोड़ दें तो यही खिलाड़ी विश्वकप, या उस स्तर के बाकी मुकाबलों में जिन खिलाड़ियों को हराते हैं,  ओलंपिक खेलों में उनसे हार जाते हैं। लक्ष्य सेन की अधिक बात इसलिए हो रही है क्योंकि उन्होंने जो खेल क्वार्टर फ़ाइनल तक दिखाया था वह कमाल का था, उसके बाद विक्टर अकसलसेन के खिलाफ़ पहली गेम में तीन गेम अंक खो कर 20-22 से पहला और 7-0 की बढ़त लेने के बाद 14-21 से दूसरा गेम हर कर बाहर हो गए। इतना ही नहीं ब्रॉन्ज मेडल के मैच में भी 21-13 पहला गेम जीतने के बाद वो अगले दो गेम 17-21 और 11- 21 से हार गए। इस मैच में कम से पांच अंक उनकी गलत लाइन जजमेंट के कारण गए। इन दोनों ही मैचेज में कभी ऐसा नहीं लगा कि वे मैच जीत नहीं सकते थे। प्रकाश पादुकोण की प्रतिक्रिया एक कोच की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। जिस खिलाड़ी ने खुद चीन के विश्व चैंपियन हान जियान को पहली गेम 15-0 से हराई हो और मैच जीता हो तो उसकी कही बात को पॉजिटिव तरीके से लिया जाए तो बेहतर है।

चिंता इन खेलों में खिलाड़ियों के पदक न जीत पाने की कम और न जीतने के कारण खोजने की अधिक होनी चाहिए। यह अब से नहीं दशकों पहले से चला आ रहा है। बात 1969 के विंबलडन टेनिस टूर्नामेंट की है। भारत के प्रेमजीत लाल दूसरे दौर का मैच खेल रहे थे। सामने थे उस ज़माने के विश्व चैंपियन रॉड लेवर। प्रेमजीत लाल ने पहले दोनों सेट 6-3, 6-4 से जीत लिए लेकिन अगले तीन सेट 3-6, 0-6, 0-6 से हार गए। असल में वो मानसिक तौर से इस मैच को जीतने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें यह विश्वास ही नहीं था कि वे रॉड लेवर को हरा सकते हैं। अगर आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि हमारी हॉकी टीम में वह जज़्बा काफी हद तक नज़र आता है। वह कई बार पिछड़ने बाद वापसी करने में सफल रही है। अगर मेरी यादाश्त ठीक है तो ब्यूनस आयर्स विश्व कप में भारतीय हॉकी टीम ने जर्मनी के खिलाफ 1-4 से पिछड़ने के बाद अंतिम पांच मिनट में तीन गोल दाग कर मैच बराबर (4-4) करवा लिया था। बाकी टीम खेलों तो हम कहीं नज़र ही नहीं आते।

सवाल यह नहीं है कि हम ओलंपिक खेलों में अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पा रहे पर क्यों नहीं दे पा रहे विचार तो इस पर होना चाहिए। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने से कुछ हासिल नहीं होगा और न ही आज तक हुआ है। आज क्रिकेट को कोसने वाले बहुत लोग हैं। वे समझते हैं कि क्रिकेट के कारण बाकी खेल पिछड़े हैं, जबकि ऐसा नहीं है। मैं भारतीय क्रिकेट को 1964 से देख रहा हूं। उस समय मंसूर अली खान पटौदी, एम एल जयसिम्हा, चंदू बोर्डे, बुद्धि कुंद्रन, दलीप सरदेसाई, सलीम दुरानी, बापू नाडकर्णी जैसे खिलाड़ी खेला करते थे। खिलाड़ी ट्रेन के डिब्बों में बैठ कर या खेल कर सफर करते थे। तब टेस्ट मैच हुआ करते थे और हमारी टीम अमूमन हारा करती थी। लेकिन तब भी रेडियो पर आंखों देखा हाल केवल क्रिकेट के मैचों का ही सुनाई देता था। लेकिन बी सी सी आई को नब्ज़ पता थी। उसने इसके लिए मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया। जहां भी क्रिकेट का कोई बड़ा टूर्नामेंट होता वहां की पहली शर्त यह होती कि वहां पत्रकार बॉक्स बना हो। बाकी खेलों में तो पत्रकार रिजल्ट्स ढूंढते ही रह जाते। इसके साथ बी सी सी आई ने इस खेल को मार्केट किया। आपको या मुझे अच्छा लगे या न लगे लेकिन सच्चाई यह है कि आज अगर चंडीगढ़, पंचकूला और मोहाली की बात करें तो कुल मिलाकर पांच से साथ हज़ार बच्चे रोज़ क्रिकेट की विभिन्न अकादमियों में अभ्यास करते हैं। अब आप देखिए इनके पास देश में खिलाड़ियों का कितना बड़ा आधार है। गिनती लाखों में है। उन लाखों में से बस 11 ही तो चुनने होते हैं। एक बात और क्रिकेट को सरकारी फंडिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती इनके पास अपना पैसा ही करोड़ों में है।

बेहतर हो कि क्रिकेट को कोसने की बजाए उससे कुछ सीखने की कोशिश की जाए।

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