भारत की आजादी के बाद बिहार की राजनीति में मुख्य रूप से कांग्रेस का बोलबाला रहा। करीब 37-38 साल सत्ता के शीर्ष पर कांग्रेस ही विराजमान रही। बिहार केसरी डॉ श्री कृष्ण सिंह से लेकर जगन्नाथ मिश्र तक कुल कुल 14 मुख्यमंत्री कांग्रेस पार्टी ने बनाया। जिनमें से कइयों ने 2 बार भी सत्ता का सुख भोगा। समाजवाद की लहर चलने के बाद 10 मार्च 1990 को जनता दल से लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने। लगभग 15 साल बिहार में जंगलराज का दौर रहा। इस दौरान कांग्रेस भी उसकी सहयोगी बनी। फिर परिस्थितियां बदली और नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर लालू यादव के साम्राज्य को खत्म किया। पिछले 20 सालों से वे लगातार इस पद पर बने हैं।
पूरी तरह नेतृत्वविहीन है कांग्रेस- परन्तु इन 35 सालों के लंबे अंतराल में काँग्रेस पार्टी बिहार में कहीं नजर नहीं आई। कभी सुपर बॉस की छवि वाली काँग्रेस अब राजद की पिछलगुआ पार्टी बन गई है। इसकी जड़ें इतनी कमजोर हो गई कि सत्ता में बापसी तो दूर कभी मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का भी सौभाग्य इसे प्राप्त नहीं हुआ। इस दौरान पार्टी में एक भी ऐसा नेता उभर कर सामने नहीं आया, जिसे आगे कर पार्टी विधानसभा का चुनाव जीत सके। कुछ जो बचे थे उन्होंने भी पाला बदल लिया। राज्य में संगठन का भी कोई अस्तित्व नहीं है। प्रदेश स्तर पर पूरी तरह नेतृत्वविहीन हो चुकी पार्टी प्रखंड और पंचायत स्तर पर भी सिर्फ कागजों तक ही सीमित हो गई। कट्टर कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं का भी पार्टी से मोहभंग हो गया।
पार्टी में लालुवाद से हुआ भारी नुकसान– बिहार में कांग्रेस के इस दुर्गति का सिर्फ एक कारण है, पार्टी में लालुवाद। शीर्ष नेतृत्व लालू यादव को खुश करने के चक्कर में अपनी ही पार्टी की अनदेखी कर रही है। ये सब जानते हैं कि बिहार कांग्रेस की बागडोर लालू प्रसाद यादव के हाथों में है। प्रदेश नेतृत्व को चुनने की बात हो या चुनाव में प्रत्याशियों के नामों की घोषणा, अंतिम निर्णय लालू यादव का ही होता है। लालू यादव के फैसले को बदलने की हिम्मत राहुल गांधी या सोनिया गांधी को भी नहीं है। यहाँ तक कि बिहार में कांग्रेस का कौन सा नेता चुनावों में भाषण देने आएगा इसका निर्णय भी लालू प्रसाद यादव ही करते हैं। तभी तो कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को यहाँ नहीं भेजती। लाख चाहकर भी पप्पू यादव जैसे कद्दावर नेता को लोकसभा में टिकट नहीं दे पाती।
दीमक बनकर कांग्रेस को खा गए लालू– दरअसल लालू यादव नहीं चाहते कि बिहार में कांग्रेस में मजबूत मजबूत हो। क्योंकि कांग्रेस मजबूत होंगी तो राजनीति में उनका प्रभाव कम हो जाएगा। वे कांग्रेस का आधार वोट बैंक का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। इसके लिए उन्होंने लगातार प्रयास भी किया। सत्ता की बागडोर सम्भालते ही लालू यादव ने बिहार कांग्रेस की कमान भी अपने हाथों में ले लिया। उधर केंद्र की सत्ता में बने रहने की मजबूरी ने शीर्ष नेतृत्व का मुंह बंद कर दिया। केंद्र में सत्ता उखड़ी तो बिहार में पार्टी का कद और घट गया। लालूजी पूरी तरह पार्टी पर हावी हो गए। टिकट बंटबारे से लेकर प्रदेश कमिटी के चुनाव में उनका हस्तक्षेप होने लगा। केंद्र में सत्ता बापसी की उम्मीद लिए शीर्ष नेतृत्व में बैठे नेताओं को सब कुछ जानते हुए भी चुप रहना पड़ा। धीरे-धीरे राजद मजबूत होती रही और कांग्रेस की जड़ें खोखली होती गई। कांग्रेस का आधार वोट बैंक भी राजद के साथ चला गया। कुल मिलाकर कहें तो लालू यादव ने कांग्रेस को दीमक की तरह खोखला कर दिया।
कैसे साकार होगा कांग्रेस का सपना– परन्तु अब कांग्रेस पार्टी को ये बात कहीं न कहीं समझ आ चुकी है कि केंद्र में सत्ता बापसी तभी हो सकती है जब राज्यों में उनकी पकड़ मजबूत होगी। इसके लिए दिल्ली की तरह अन्य राज्यों में भी पार्टी को अपने दम पर लड़ना होगा। निचले स्तर पर अभी तक अटूट रहे अपने कार्यकर्त्ताओं का मनोबल बढ़ाना होगा। कांग्रेस इस बात को भली-भांति जानती है कि बिहार में कांग्रेस तभी मजबूत होगी जब राजद और लालू यादव कमजोर होंगे। और ये तभी संभव है जबकि बिहार की राजनीति में पार्टी अकेले या फिर वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़े। इससे एक ओर जहां कांग्रेस के नेताओं का कद बढ़ेगा वहीं कार्यकर्त्ताओं का मनोबल भी बढ़ेगा। पार्टी का आधार वोट बैंक भी धीरे-धीरे ही सही बापस आ जायेगा।
राजद से मुसलमानों की नाराजगी का फायदा– राजद से मुसलमानों की नाराजगी किसी से छिपी नहीं है। राजद ने मुसलमानों के वोट का सिर्फ और सिर्फ इस्तेमाल किया है। सत्ता में कभी भी मुसलमानों को उसका उचित हक नहीं मिला। मरहूम शहाबुद्दीन का जो हश्र हुआ वो राज्य के मुसलमान अभी तक नहीं भूले हैं। उनके बाद कोई मुस्लिम नेता उतना ताकतवर नहीं बन सका या कहें तो लालू यादव ने उन्हें बनने ही नहीं दिया। अधिकांश मुसलमानों के दिल में इस बात को लेकर तिलमिलाहट है। परंतु राजद-कांग्रेस गठजोड़ के कारण उनकी तिलमिलाहट दिल में ही दबकर रह गई है। क्योंकि दूसरी तरफ कट्टर हिंदुत्व वाली BJP है, जिसे मुसलमान कभी कीसी भी सूरत में स्वीकार नहीं कर सकते। लेकिन अगर कांग्रेस अलग चुनाव लड़ती है तो पूरी मुस्लिम कौम खुलकर उसका समर्थन करेगी। साथ ही लालू विरोधी सवर्ण और अन्य जातियों के मतदाता भी काँग्रेस के साथ आ जाएंगे।
प्रशांत किशोर और पप्पू यादव बने हथियार– हालांकि कांग्रेस ने इससे इतर दूसरा रास्ता चुना है। इस रास्ते की मंजिल तो वही है पर सफर काफी लंबा होने की संभावना है। सूत्रों की मानें तो जनसुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर एवं पूर्णिया के सांसद पप्पू यादव के बल पर कांग्रेस अपना खोया हुआ साम्राज्य पाने का जुगत लगा रही है। एक तरफ जहां प्रशांत किशोर को अंदरूनी शह देकर राजद को कमजोर कर रही है। वहीं दूसरी तरफ पप्पू यादव को बढ़ावा देकर पूरे बिहार में पार्टी को मजबूत करने की कवायद है। दोनों ही बिहार में मजबूती से कांग्रेस के एजेंडों पर काम करते नजर आ रहे हैं। दोनो ही राजद और तेजस्वी को लगातार निशाने पर ले रहे हैं। मकसद एक ही है किसी तरह राजद को कमजोर करना ताकि कांग्रेस एकबार फिर से मजबूत हो सके।
जनता तक पहुंचाया संदेश– हालिया घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो 70वीं BPSC आंदोलन की दिशा को प्रशांत किशोर और पप्पू यादव ने मिलकर बदल दिया। मीडिया में दोनों पर आरोप लगा कि उन्होंने छात्रों के आंदोलन को हाइजैक कर लिया। पक्ष-विपक्ष के साथ-साथ दोनों ने भी एक दूसरे पर छात्र नेताओं को बरगलाकर अपनी राजनीति चमकाने के आरोप लगाया। परंतु अंदरखाने की मानें तो ये पूरा घटनाक्रम सुनियोजित था। पूरी प्लानिंग के साथ पूरा खेल किया गया। ताकि बिहार की जनता तक ये संदेश पहुंचे कि राज्य का विपक्ष कमजोर है। जो काम तेजस्वी को करना चाहिये वो प्रशांत किशोर और पप्पू यादव जैसे नेता कर रहे हैं। फिर जनता ने जिसे मजबूती से विपक्ष में बिठाया उनकी क्या जरूरत है? और कहीं न कहीं इस बात को जनता तक पहुंचाने ने दोनों को कामयाबी हासिल भी हुई।
तूफान के आने का मिल रहा संकेत– हालांकि इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। किंतु उनकी अभी तक कि कार्यशैली पर गौर करें तो दोनों का सबसे बड़ा टारगेट तेजस्वी यादव हैं। लोकसभा चुनाव से पहले पप्पू यादव की पार्टी जाप के कांग्रेस में विलय इसीलिये किया गया कि पार्टी को मजबूत किया जा सके। इस बात की भनक मिलते ही पूर्णिया से उनका टिकट काटकर राजद ने अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया। पप्पू यादव निर्दलीय लड़कर चुनाव जीते, लोकसभा कांग्रेस को अपना समर्थन दिया। अभी तक राहुल और प्रियंका गांधी को अपना नेता और कांग्रेस को अपनी पार्टी मानते हैं। उधर मीडिया में चली एक रिपोर्ट के मुताबिक जनसुराज की फंडिंग पर सवाल उठाया गया है। पुराने कांग्रेसी और पूर्णिया से तीन बार के सांसद उदय सिंह पर जनसुराज को फंडिंग करने का आरोप लगा है। कहा ये जा रहा है कि उदय सिंह आज भी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य हैं। इतने गंभीर आरोप के बाबजूद अभी तक कांग्रेस की ओर से कोई सफाई नहीं दी गई। पार्टी के किसी नेता ने मीडिया के सामने इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोला। जो कहीं न कहीं इन आरोपों की सत्यता को प्रामाणित करता है। उसकी यह चुप्पी किसी भयानक राजनीतिक तूफान की ओर इशारा कर रही है।
राजद की कमजोरी का उठाएगी फायदा– दरअसल विधानसभा के चुनाव में अभी 6-7 महीनों की देरी है। कांग्रेस चाहती है दोनों मिलकर इसी तरह राजद और तेजस्वी को कमजोर करते रहें। और वो गठबंधन में साथ रहकर राजद और लालू की रणनीति से भी अवगत होता रहे। इसी कमजोर नस को दबाकर सीट बंटबारे के वक़्त पार्टी अपनी मजबूत दावेदारी पेश करेगी। वो ये भली-भांति जानती है कि लालू के बाद अब तेजस्वी वाला राजद भी अपनी अकड़ के वश में आकर उनकी यह मांग ठुकरा देंगे। इस उचित समय का लाभ उठाते हुए कांग्रेस अकेले या फिर वाम दलों के साथ चुनाव लड़ने का फैसला करेगी। जनता को ये संदेश देगी कि राजद ने हमारे साथ न्याय नहीं किया। संगठन की जिम्मेदारी पप्पू यादव के हाथों में दी जाएगी। कन्हैया कुमार जैसे मोदी के धुर विरोधी को मैदान में उतारा जाएगा। मुसलमानों को पार्टी में मजबूत भागीदारी देकर मजबूती से चुनाव लड़ेगी। अगर ऐसा हुआ तो सीमांचल, मगध और शाहाबाद जैसे क्षेत्र में राजद को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। राजद कमजोर होगी तो इसका सीधा फायदा कांग्रेस को ही होगा।