वफादार को ताज !,थरूर के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में खड़गे का हाथ ऊपर  

कांग्रेस में लम्बी कसरत और उठापटक के बाद आखिर अध्यक्ष के चुनाव की तस्वीर साफ़ हो गयी है। गैर गांधी के इस चुनाव में शशि थरूर और मल्लिकार्जुन खड़गे में टक्कर है, और हालात साफ़ संकेत कर रहे हैं कि कोई उलटफेर नहीं हुआ तो अनुभवी और गांधी परिवार के करीबी खड़गे कांग्रेस के अगले अध्यक्ष होंगे। जीतने पर जगजीवम राम के बाद वे कांग्रेस के दूसरे दलित अध्यक्ष होंगे। भले गैर गांधी अध्यक्ष बने, खड़गे को गांधी परिवार का ही प्रतिनिधि माना जाएगा। बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी

यह संयोग ही था कि जिस दिन राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शशि थरूर के गृह राज्य केरल से मल्लिकार्जुन खड़गे के गृह राज्य कर्नाटक पहुँची, दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए खुद को पीछे कर खड़गे के नाम का समर्थन कर दिया। खड़गे और थरूर दोनों ने ही अध्यक्ष पद के लिए नामांकन दाखिल किये हैं और साफ़ दिख रहा है कि गांधी परिवार के वफादार के रूप में खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना लगभग तय है। साल 1998 में जब सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष बनीं, उसके बाद खड़गे, यदि चुने गए तो, पहले गैर गांधी कांग्रेस अध्यक्ष होंगे। इससे पहले सीताराम केसरी गांधी परिवार से बाहर के अध्यक्ष थे। यह भी हो सकता है कि नेताओं के आग्रह को मानते हुए थरूर नाम वापस ले लें और खड़गे को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने जाने का रास्ता साफ़ कर दें।

खड़गे के रूप में 10 जनपथ ने एक तीर से कई निशाने साध लिए हैं। सबसे बड़ा यह कि राजनीतिक विरोधी भाजपा को चुप कराने के लिए अध्यक्ष पद परिवार से बाहर के व्यक्ति को दे दिया है। हालांकि, यह भी तय है कि भाजपा का हमला फिर भी भविष्य में गांधी परिवार पर ही सीमित रहेगा। दूसरे, एक वफादार को पार्टी अध्यक्ष बनाकर सन्देश दे दिया कि वफादारी का पुरूस्कार मिलता ही है। भले खड़गे ज़मीन से उठकर आये नेता हों और उनका संसदीय और राजनीतिक अनुभव किसी भी नेता के मुकाबले काफी हो, वे कहलाएंगे गांधी परिवार के वफादार ही।

उधर खड़गे के मुकाबले उतरे थरूर को गांधी परिवार का वफादार नहीं कहा जा सकता और वे जी-23 में भी रहे हैं। कोई संदेह नहीं कि थरूर भले मैदान में उतरे हैं वे खुद कह चुके हैं कि भले दोस्ताना मुकाबले के लिए ही सही, वे चुनाव लड़ रहे हैं।

राजस्थान का घटनाक्रम
राजस्थान की घटना के बाद ही खड़गे का नाम तय हुआ। पार्टी आलाकमान के भेजे दूतों के सामने पार्टी के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थक विधायकों ने जैसा व्यवहार किया उसने एक समय तय मानी जा रही गहलोत की कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी के रास्ते में रोड़ा अटका दिया। जब यह सारा घटनाक्रम हुआ और सोनिया गांधी के इस घटना के प्रति नाराजगी की बात सामने आई तो गहलोत दिल्ली दौड़े। यह माना जाता है कि उन्होंने फोन पर गांधी से इस घटनाक्रम पर माफी माँगी और कहा कि इसमें उनका कोई रोल नहीं था।

इसके बाद देर रात सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के बीच नए अध्यक्ष को लेकर चर्चा हुई जिसमें खड़गे का नाम तय हुआ। हालांकि, इस बीच मध्य प्रदेश के दिग्गज और दो बार मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने भी कहा कि वे अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ेंगे। लेकिन नामांकन के आखिरी दिन उन्होंने खुद को पीछे करके खड़गे के नाम का समर्थन कर दिया जो स्वाभाविक रूप से गांधी परिवार की पसंद बन चुके थे।

देखें तो कांग्रेस में जगजीवन राम के बाद कोई भी दलित पार्टी का अध्यक्ष नहीं बना है। जगजीवन राम 1970-71 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे। याद रहे इसी साल जुलाई में जब ईडी ने सोनिया-राहुल को नेशनल हेराल्ड मामले में पूछताछ के लिए अपने दफ्तर बुलाया था, उस समय संसद में विरोध का मोर्चा खड़गे ने ही संभाला था।

खड़गे के नामांकन में जिस तरह कांग्रेस के तमाम बड़े जुटे उससे जाहिर हो जाता है कि गांधी परिवार उनके साथ है। आनंद शर्मा जैसे नेता, जो हाल के महीनों में गांधी परिवार को लेकर विपरीत विचार रखते रहे हैं, भी इस मौके पर उपस्थित थे। इसी तरह महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वी राज चव्हाण ने इस मौके पर कहा कि उन्हें जी-23 का नाम मीडिया ने दिया और वे कभी भी पार्टी से बाहर नहीं थे। वे सिर्फ पार्टी की बेहतरी की बात कर रहे थे। इसके विपरीत थरूर के साथ कोई बड़ा नेता नहीं था। यहाँ तक कि उन्हें अपने गृह राज्य केरल से भी समर्थन नहीं मिल पाया।


गहलोत और पायलट का भविष्य

कांग्रेस में अब इन दोनों नेताओं के भविष्य की बड़ी चर्चा है। राजस्थान के घटनाक्रम के बाद दोनों दिल्ली में पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले और अपनी अपनी बात उनके सामने रखी। मुलाकात के बाद गहलोत के चेहरे और पायल के चेहरे की भाषा से समझा जा सकता है कि गहलोत को राजस्थान की घटना से खुद पर अफ़सोस है और वे महसूस करते हैं कि उनसे बड़ी गलती हो गयी। नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थान की घटना से पहले गहलोत खुद कह चुके थे कि वे कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं।

यह साफ़ है कि दी सबीर सचिन पायलट राजस्थान में कांग्रेस की सूबेदारी संभालेंगे। गहलोत कब तक मुख्यमंत्री रहेंगे, कहना मुश्किल है। पार्टी के संगठन मंत्री केसी वेणुगोपाल का यह बयान नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कुछ दिन में राजस्थान के मुख्यमंत्री को लेकर फैसला करेंगी। इस बयान का कोई अर्थ निकाला जाये तो यही है कि गहलोत की कुर्सी को लेकर कोई फैसला पार्टी कर सकती है। अर्थात उनकी कुर्सी जाने का खतरा भी मंडरा रहा है।

गहलोत के करीबी तीन बड़े नेताओं को कांग्रेस अनुशासन समिति नोटिस जारी कर चुकी है जबकि इसके बाद बाकायदा एक ब्यान में पार्टी ने इन सभी नेताओं को अनुशासन की सीमा नहीं लांघने का निर्देश दिया है। निश्चित ही जो हुआ वह पार्टी आलाकमान के निर्देशों की नाफरमानी तो थी ही। पार्टी ने राजस्थान के बहाने जो सन्देश दिया वह यही है कि आलाकमान की नाफरमानी करने के क्या मायने क्या हैं। भाजपा में ऐसा हुआ होता तो शायद इन नेताओं को कब का बाहर कर दिया गया होता।

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