ग़ज़ल : रब नहीं हूँ मैं

दर्द देहल्वी

कुछ न कुछ तो हूँ, सब नहीं हूँ मैं।

रब का बन्दा हूँ, रब नहीं हूँ मैं।।

क़द्र-ओ-क़ीमत मेरी बढ़े कैसे,

तिश्न: लब की तलब नहीं हूँ मैं।

हुक्मराँ जिन के मुत्तक़ी थे कभी

वो सऊदी अरब नहीं हूँ मैं।

हो तजस्सुस तो ढूँढ लोगे मुझे,

इतना दिक़्क़त तलब नहीं हूँ मैं।

एक सहरा भी हूँ उदासी का,

सिर्फ़ वज़्म-ए-तरब नहीं हूँ मैं।

आप महसूस ही नहीं करते,

आप के साथ कब नहीं हूँ मैं।

         – दर्द देहल्वी 

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