जेठ का महीना और चढ़ती हुई धूप, लेकिन गांव में तिल रखने की जगह नहीं मिल रही थी। आधी रात में बड़ी बखरी वालों की मंझली बहू के खत्म होने की खबर आग की तरह फैल गई थी। गांव भर में नहीं, बल्कि आसपास के गांव बिरादरी वालों को भी पता चल गया था। इसीलिए अंतिम दर्शन और क्रियाक्रम में भाग लेने की चाह से लोगों रातों-रात घर से निकल लिए थे, ताकि समय से पहुंच जाएं। आखिर पुराने जागीरदार होने के साथ-साथ बड़ी बखरी वाले अपने राजनीतिक रसूख के लिए भी प्रसिद्ध थे। साथ ही समाजसेवी और गरीबों के मसीहा के नाम से भी इस ठाकुर घराने को बहुत शोहरत हासिल हुई थी। बस यही कारण थे कि हर कोई अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहता था और यह साबित करने में लगा था कि उनके परिवार में आन पड़ी इस विपदा के अवसर पर पूरा गांव और बिरादरी के लोग उनके साथ खड़े हैं। सूर्य देवता ने अपनी किरने बिखेरने के साथ सुबह होने की दस्तक दे दी थी, सूरज धीरे-धीरे अपने तेज और ताप को सहेजे पैदल निकले लोगों की हालत बिगाड़ रहा था, लेकिन गर्मी से हारे लोग मन-मसोस कर चल रहे थे। आखिर उन्हें बरखरी के बड़ी बखरी वालों के यहाँ मंझली बहू की अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने के लिए पहुंचना जो था।
अब तक बरखेड़ा वाले चौहान साहब के यहाँ गांव वालों की आवा-जाही शुरु हो गई थी, अधाधुंध भीड़ थी औरअब भी आने-जाने वालों का तांता लगा था। तेज धूप और गर्मी की शिद्दत की वजह से पसीने से लथपथ गांव के सारे लोग चौहान साहब की पत्नी की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए बेताब थे, एक तो ज़बरदस्त गर्मी उस पर लोगों का जमावड़ा। उमस के कारण वहाँ उपस्थित सभी का बुरा हाल था।
बस कुछ ही समय शेष था शवयात्रा निकलने के लिए। वहीं दूसरी ओर बरखरी वाली मंझली बहू के मृत शरीर में शायद अभी तक उसकी आत्मा का वास था और वह आत्मा उसको कचोट रही थी, जाने से पहले मंझली बहू की आत्मा उससे हिसाब-किताब करना चाहती थी। अब अंतरात्मा ने मंझली बहू की मृृत देह से सवाल-जवाब करना शुरु कर दिए थे। “नीलेेश की मां तुम जा रही हो, यानी कि अब तुुम फाइनली इस संसार से कूच करके, अपने अंतिम गन्तव्य की ओर जाने की तैयारी में हो। लेकिन जाते-जाते ज़रा मुझे अपना नाम तो बता दो। क्यों अपना नाम तुम्हें याद है कि नही?”
अब इन सवालों से आहत बड़ी बखरी वाली मंझली बहू ने सवाल सुनते ही पूंछा- “तुम कौन हो?” आखिर मेरा नाम क्यों जानना चाहती हो? जबकि अब मैं इस संसार को अलविदा कह चुकी हूं…।”
“मैं तुम्हारा गुज़रा हुआ ज़मीर, तुम्हारी अन्तरात्मा हूँ। अन्तर्मन हूँ तुम्हारा। सुनो चौहान साहब! बहुरिया, बहुुत लम्बे अरसे से मैंने तुम्हारा नाम सुना ही नहीं था। इसीलिए सोचा जाते-जाते तुमसे ही तुम्हारा नाम पूछ लूं, …शायद तुम्हें अपना नाम याद हो।
मृत देह असमंजस में थी, वह सोच में पड़ गई… ‘अरे हां, सच ही तो कह रही हो। अब तक तो अच्छे से मुझे अपना नाम और वजूद ही याद नहीं रहा, बहुत देर से दिमाग़ पर ज़ोर लगा रही हूँ । अरे हां, मिसेज चौहान। हां, हां; वही बरखेड़ा वाले चौहान साहब की पत्नी, …इसी नाम से तो जानी जाती रही हूं मैं पूरे तीस बरस से।”
उसकी अन्तरात्मा ने फिर धिक्कारा – “अच्छा यही नाम है क्या तुम्हारा?”
इस बार मृत मंझली बहू परेशान हो गई। सच है मेरा अंतस बार-बार मुझसे मेरा नाम पूछ रहा था। जो शायद मुझे अब खुद ही याद नहीं आ रहा था।.तो फिर क्या नाम है मेरा? मैं हैरान थी। अच्छा, अच्छा; नीलेश सिंह चौहान की मम्मी! चौहान आंटी! छोटी ताई जी, …बड़ी बखरी वाली, मंझली भाभी, मामी। …यही सब नाम तो चलते थे बखरी में मेरे। मंझली बहू सोच में पड़ गई।
“अरे पगली यमराज तुझे तेरे नाम से ही तो लेने आया होगा। अब जा ही रही है तो सही-सही याद कर ले अपना नाम वर्ना भगवान जब तुझसे सवाल- जवाब करेंगे और तुझसे तेरा नाम पूंछेंगे, तो अपना क्या नाम बताएगी?”
“वाकई सच तो है मेरा अंतस मेरे प्राण पखेरू निकलते -निकलते मुझे झकझोर रहा था। मैं क्या कहूँ, तू जानता तो है। बरसों हो गए मुझे मेरे नाम से आज तक किसी ने पुकारा ही नहीं। पहले मायके का नाम लेने का चलन ही कहाँ था, भला फिर तू ही बता कहाँ तक याद रखती अपना नाम? चल छोड़ मुझे कहाँ फंसा रखा है? अब जब जा ही रहीं हूँ, तो चैन से जाने दें इस संसार से। यूं आखिरी सफ़र में जाते हुए तो मुझे मत झकझोर। देख पूरा घर आज मेरी अंतिम बिदाई की तैयारी में कैसे तन-मन से जुटा है। बात-बात पर मुझे अभागन और मनहूस कहने वाली मेरी सासुमां आज सुहागिन मर जाने के कारण मुझे कैसी भागवान स्त्री समझ रही हैं। सबसे बस यही रट लगाए हैं कि हमारी मंझली बड़ी भाग्यवान थी देखो हमारे परिवार में यह पहली बहू है जो सुहागिन मरी है। वह बड़ी जिज्जी यानी मेरी जेठानी जी को समझा रहीं थीं- “बड़ी बहू याद रखना सुहागन के श्रंगार में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए, तुु मेरी चौहनवा की बहू का खूब ससाज-श्रंगार करना।”
“मुझे बड़ी हंसी आ रही है जीवन भर चैन की सांस नहीं लेने दी और आज, कैसे मेरी अंतिम बिदाई की तैयारी करवा रही हैं। वाह! वाह! बहुुत खूब इनकी घड़ियाली आंसू और मथुरा की चाल तो देखो, …मगरमच्छी आंसू बहा रही है।
अरे वाह! आज तो हमारे बहादुर पति चौहान साहब भी रो रहे हैं। बड़े उदास बैठे हैं बेचारे। ऐसा लगता है मानो आज, अब, इनकी चौपड़ नहीं बिछ पाएगी। इसीलिए उदास हैं। वर्ना कोई जिये या मरे, इनकी बला से। इन्हें तो बस अपनी राजनीति, रासलीला, मदिरापान और चौपड़ का खेल ही रास आता था। पत्नी तो इन्हें केवल अपना वंशबेल बढ़ाने और कामवासना के लिए चाहिए थी, कामवासना के लिए भी तब जब किसी कारणवश बाहर वाली से वह प्यास न बुझ पाये, तभी उन्हें अंदर आकर अपनी हवस मिटाने के लिए पत्नी चाहिए थी। मैं चौहान साहब की पत्नी, …मेरा भी कुछ ऐसा हाल हुआ कि एक के बाद दूसरा बच्चा जनने लायक नहीं रही थी। भगवान ने भी मेरी वही स्थिति कर दी थी कि एक तो कोढ़ उस पर खाज। वैसे भी मेरी जैसी धीर-गम्भीर पत्नी उन्हें पसंद नहीं थी। फिर मैं अभागन एक से अधिक संतान को भी जन्म नहीं दे पायी, इसी कारण उन्होंंने मुझे सदा उपेक्षित ही रखा। क्या कहना था मेरे हाल का? पति से उपेक्षित और तिरस्कृत पत्नी के मान-सम्मान को पूरे परिवार ने ठोकर में मार दी। सदा सबके पैरों की जूती ही बनकर रही। सभी जानते हैं कि जिन पत्नियों के पति सम्मान नहीं करते, उन पत्नियों को फिर ससुराल में कोई मान-सम्मान नहीं देता। अंतत: वो तो भगवान की बड़ी कृपा रही कि नीलेश जैसा होनहार बेटा मेरी कोख से जना।
अरे वाह! देख रही हूँ रमन भी आया है। मेरे आखिरी सफ़र में, मुझे गंतव्य तक ले जाने के लिए। रमन मेरा सबसे छोटा सौतेला देवर जब ब्याह कर आयी थी, तो सात-आठ बरस का था। दिन-रात मेरे पीछे लगा रहता, मैंंने उसे अपने बच्चे सा स्नेह दिया। जवान होता रमन परिवार में कर्ण के समान पराक्रमी और सत्यवादी था, खरी-खरी कहने से ज़रा भी नहीं चूकता था। अक्सर चौहान साहब से मेरे लिए भिड़ जाता। सिर्फ एक रमन ही तो था, जो मेरा अपना था, जिससे मुझे बेहद आत्मीय लगाव था। वो भी अपनी आत्मीय दृष्टि मुझ पर बनाए रखता । बस फिर क्या कहना था ? मेरे पक्ष में खड़ा होने के कारण रमन चौहान साहब की आंखों में खटकने लगा । एक दिन चौहान साहब ने अपने दुर्व्यवहार और दुर्गणों को दबाने के लिए उसी के साथ मेरा सम्बंध जोड़ एक नया इल्जाम गढ़ दिया, हमारी आशिकी की परिवार में चर्चा शुरु हो गई। मैं तो काठ की हो गई थी। क्या करूं? अहिल्या तो थी नहीं कि पत्थर की शिला हो जाती। मैंने जिसे बेटे की तरह पाला-पोसा था, उसी के साथ अपलोक भी लगा दिया गया। इस तरह चौहान साहब ने अपनी स्वार्थ सिद्धि में रमन को भी मेरे पुत्र नीलेश की तरह मुझसे दूर कर दिया गया। नीलेश को पढ़ाई-लिखाई के नाम पर बोर्डिंग और रमन को बिज़नेस के नाम पर दिल्ली भेज दिया गया था। रमन जाते समय आया था छुपकर, चोरों की तरह मुझसे मिलने। मैंने उसे दूूर से ही फलो-फूलो का आशीर्वाद दिया, लेकिन वो आशीर्वाद से संतुष्ट नहीं हुआ था। धीरे से बस इतना बोला था, मेरे पैर छूते समय-“भाभी मां मेरे सिर पर अपना हाथ रख कर आशीर्वाद नहीं दोगी क्या? अब तो हमेशा के लिए आपसे दूर जा ही रहा हूँ?”
लेकिन उस दिन चाहते हुए भी मैं उसके सिर पर हाथ नहीं रख पायी थीं। कैसी विडम्बना थी मेरे साथ? फिर ऐसे गया की कभी मुड़कर वापस न आया या चौहान साहब के भय ने उसे दोबारा वापस आने ही नहीं दिया। नीलेश की तरह रमन से मिलने को भी तड़पती रही जीवन भर, इस समय मन तो कर रहा है कि भगवान से कहूं, एक बार मुझे इतनी सांसे और शक्ति प्रदान करे कि उठकर पूछूं- “अब क्या लेने आये हो? मेरी मृत्यु के बाद, क्या तुम्हारा भय खत्म हो गया या चौहान साहब का? देखो, कैसे रो रहा है? मुझे बहुत तरस आ रहा है। हे भगवान! मुझसे नीलेश और रमन की उदासी और रोना देखा नहीं जा रहा। यकायक मैं अपने अंतस से अनुरोध करती हूँ कि आज तो इस रमन का टूटा-बिखरा स्वाभिमान जगा दे। जिस पति ने दासी के अलावा मुझे कभी पत्नी होने का मान-सम्मान नहीं दिया, कुछ समझा ही नहीं; …उसे मेरी अर्थी छूने न दे। मैं नहीं चाहती कि ये मेरी अंतिम यात्रा का सहभागी बने। जो जीवन भर साथ नहीं चला, भला वो अब क्यों साथ चले?
बस इस समय मृत्युशैय्या पर विराजमान मैं स्वयं को इसलिए सौभाग्यशाली समझ रही हूँ कि नीलेश की बहू रत्ना मुझे बड़े प्यार से सुहागिन बना रही है। उसका एक-एक स्पर्श, मेरी निर्जीव देह पर गिरते उसके आंसू मेरे अंदर के ताप को कम कर रहे हैं। मेरा आक्रोश क्षीण होकर बह रहा है। मुझे इस समय उसके आंसुओं का स्पर्श ठंडी हवा का झोंका सा लग रहा है। शायद मैं मृत सुहागिन उसके असीम प्रेम और स्नेह से जी उठी थी। उसने हमेशा मेरा मान रखा था। जब मैं उसे ब्याह कर लायी थी, नीलेश से मैंने एक ही बात कही थी- “अगर रत्ना को पत्नी बनाकर लाया है तो जीवन भर अपना सारा प्रेम और सम्मान इसी पर लुटाना, तुझे अपनी मां की सौंध।”
नीलेश ने मेरी लाज रख ली थी। मेरी बहू और नीलेश की पत्नी रत्ना जिस मान-सम्मान की अधिकारिणी थी, वह उसे पर्याप्त मिल रहा था। यही देख कर मेरी आत्मा तृप्त हो रही थी। देख रही हूं, .सासु मां चिल्ला रहीं थीं-
“तैयार हो गई बहूरानी। सबसे पहले चौहनवा को उसकी दुलहिन के दर्शन करवा दो। सुहासिनी अब अपनी अंतिम यात्रा में जा रही है। अपने किए धरे की क्षमा मांग ले उससे।”
मैं सजी संवरी मृत सुहागन सोच रही थी, …काश कोई मेरी अंतिम इच्छा समझ ले इस चौहान साहब को मेरे दर्शन न करने दे। तभी यकायक रत्ना मेरा मुंह ढंक देती है और नीलेश व रमन मेरी अर्थी को उठा लेते हैं। ज़ोरदार राम नाम सत्य की आवाज़ों से मैं ड्योढ़ी से बाहर निकल पड़ती हूँ। धन्य हो कि भगवान ने सुन ली।
हां, मेरी अंतरात्मा तू क्यों इस समय इतनी शांत हो गई मेरी सासुमां के मुख से जाते-जाते मेरा नाम तो सुन ही लिया होगा तूने ! हां मुझे भी अपने अंतिम सफ़र में यह तो याद आ गया कि मैं सुहासिनी हूं ।