ग़ज़ल – किसान 

– पंडित प्रेम बरेलवी

खेत में दिन-रात खपता, खेत हो जाता किसान
तब कहीं दो-चार दाने अन्न के पाता किसान

सर्दियाँ हों, गर्मियाँ हों, या कि फिर बरसात हो
पेट की ख़ातिर हमारे चैन कब पाता किसान

बीज महँगे, खाद महँगी, तेल महँगा हो गया है
दाम लेकिन फ़स्ल के अच्छे कहाँ पाता किसान

बीच में फिर कीटनाशक और मज़दूरी तमाम
जैसे ख़र्चों की वजह से हाय पिस जाता किसान

बच गया मौसम, अवारा जानवर की मार से तो
सूदखोरों और दलालों से न बच पाता किसान

बाद उसके पेट पशुओं का भराये रात-दिन ही
तब कहीं परिवार अपना पालता, दाता किसान

फिर ज़ुरूरत और बच्चों की पढ़ाई मार देती
कुछ भी हो, माँ-बाप को फिर भी न ठुकराता किसान

घर में आ जाए कोई भी, अपना हो या ग़ैर हो
खाना-पानी पूछता है, प्यार जतलाता किसान

इतनी क़ुर्बानी, तपस्या करके भी ख़ामोश है ये
अन्नदाता यूँ नहीं ऐ दोस्त कहलाता किसान

मूर्ख हैं जो मूर्ख समझे हैं किसानों को जनाब
पेट भरकर भी वतन का कब है इतराता किसान

उम्र भर घाटा ही घाटा झेलकर जीता है “प्रेम”
जाने इतना सब्र कैसे तुझमें है आता किसान 

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