दिल के कूचे से जब भी गुज़रता है वो
रात भर रातरानी महकती रही
ये जो पागल हवा है भटकती बहुत
रात भर घर की कुंडी खटकती रही
जो कभी एक पल उसको देखूँ नहीं
ग़मज़दा ये हवेली सिसकती रही
ज़र्द पत्ते सी बिखरी मिली खा़क में
खा़क में भी मिलन को हुमकती रही
बाद मुद्दत किया वस्ल ने सर्द इसे
‘नेहा’ पल पल ये दुनिया बदलती रही
……………….डॉ. नेहा इलाहाबादी, दिल्ली