– डॉ. अशोक मधुप
तुम छू लो चन्दन बन जाऊँ
सुरभिहीन जीवन है मेरा
तुम छू लो चन्दन बन जाऊँ।
तुम कंचन, मैं निपट अकिंचन,
जैसे हो माटी का ढेला।
वैभव तेरा दास कि मैं तो,
भरी भीड़ में खड़ा अकेला।
पारसमणि सी दे तुम्हारी,
तुम छू लो कुन्दन बन जाऊँ।
मीलों पता नहीं मंज़िल का,
पीड़ा मेरे संग अकेली।
सुन्दरता तेरी चेरी है,
ख़ुशियाँ तेरी सखी-सहेली।
करो कभी शृंगार अगर तो,
मैं तेरा दरपन बन जाऊँ।
पनघट प्यासा, तन-मन प्यासा,
सारा जीवन ही प्यासा है।
कोई अभिलाषा है ऐसी,
तो यह केवल अभिलाषा है।
तुम यदि सावन बनकर बरसो,
तो मैं वृन्दावन बन जाऊँ।