लघुकथा : लहरा महोब्बत

हीरालाल राजस्थानी

बहुत दिनों बाद शंभू अपनी पत्नी रमा संग बेटी-दामाद से मिलने पंजाब के एक गाँव ‘लहरा महोब्बत’ गए। दामाद रेलवे में स्टेशन मास्टर था और ट्रांसफर के बाद इसी गाँव में किराए पर आ बसे थे। 
शंभू – “घर तो बड़ा और हवादार है चंदन!” 
चंदन – “जी, पापा जी! यही पास में एक पंडित जी ने दिलवाया है। भले आदमी है। आपको उनसे मिलकर अच्छा लगेगा।” 
शंभू -“ठीक है बेटा! मिलने में क्या बुराई है।”
शाम को टहलते हुए शंभू और रमा, बेटी-दामाद के साथ पंडित जी से मिलने उनके घर गए। चंदन ने दरवाज़े पर दस्तक दी जिस पर पंडित जवाहर लाल शर्मा की नेमप्लेट टंगी थी। दरवाज़ा खोलते ही, चंदन को देख एक व्यक्ति ने उल्लास भरा स्वागत कर, अंदर आने का आग्रह करते हुए अपने परिवार से मिलवाते हैं। ये वही पंडित थे, जिनके बारे में चंदन पहले ही बता चुका था। एक और शख्स वहाँ मौजूद था। उसका परिचय करवाते हुए पंडित ने कहा- “ये चितरंजन जी हैं। महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण हैं; यहीं हमारे साथ हलवाई की दुकान चलाते हैं।” 
चितरंजन बातों-बातों में पूछता है- “आप किस जाति से हैं?” यह सुनते ही शंभू और रमा एक-दूसरे की ओर ऐसे देखते हैं, जैसे सदियों पुरानी पीड़ा उनके चेहरे पर छा गई हो। लेकिन चंदन ने बिना किसी मानसिक दबाव के सहज ही कहा- “खटीक!” 
वातावरण ज्यों का त्यों बना रहा। पंडित जवाहर लाल शर्मा नज़रें झुका, उपदेशात्मक शैली में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहने लगा- “देखिए श्रीमान! इस देश में सभी जाति-धर्म के लोग रहते हैं और उन सभी से यह देश बना है। अब कौन कहाँ से आया है? क्या करता है? इससे किसी को कमतर समझना, लोकतंत्र और संविधान दोनों पर सवाल खड़े करना जैसा है।” 
शंभू चकित था। उसने अपने सारे पूर्वाग्रह त्याग कर कहा- “बात सही है।”
पंडित– ‘जी, श्रीमान! मेरे पिता जी कहते थे- “जो बिना मेहनत के परजीवी बनकर जीता है, वह कुत्ते का जीवन जीता है।”
शंभू – “जी! मैं आपकी बात से सौ फ़ीसदी सहमत हूँ। कर्म ही जीवन का आधार है। जातियाँ तो बिना सिलाई के परिधान जैसी होती हैं, जिन्हें पहनकर ज्यादा दूर नहीं जाया जा सकता।” 
चितरंजन दीवार पर टंगी गाँधी की तस्वीर-सा मुस्कुरा रहा था और शर्मा जी सिर हिलाकर सहमति दे रहे थे। टेबल पर परोसी गयी चाय-नमकीन सभी के होंठों तक पहुँच चुकी थी। दोनों परिवार में घंटों देश-दुनिया की बातें होती रहीं, फोन नंबर आदान-प्रदान हुए और जातियाँ कहीं दूर कौने में शर्मिंदा हुई खड़ी एक-दूसरे को सराह रही थीं। 

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