आज के नफरत भरे माहौल में अगर कहीं कोई मोहब्बत की बात करता नजर आए, तो ऐसा लगता है, जैसे किसी बदबू वाली जगह पर कहीं से खुशबू आ गई हो। झगड़े के बीच अचानक से किसी ने बांसुरी की मथुर तान छेड़ दी हो और सब झगड़ने वाले एकदम शान्त होकर उसे ही सुनने लग गए हों। यह मोहब्बत की खुशबू किसी गैर को गले लगाने से आ सकती है। यह खुशबू किसी गीत की मीठी तान छेड़ने से आ सकती है। यह खुशबू किसी गरीब की मदद करके अपने अंदर से आ सकती है। यह खुशबू कविता और शायरी से आ सकती है। जिंदगी की ऐसी तमाम खुशबुओं का गुलदस्ता अभी हाल ही मेरे हाथ लगा, तो उसे पढ़े बिना रहा नहीं गया। इस गुलदस्ते का नाम ग़ुबार-ए-दिल है। जी हां, ग़ुबार-ए-दिल शायरी की एक ऐसी किताब का नाम है, जिसमें दुनिया के कई रंग के फूल महकते और खिलते नजर आते हैं। इन फूलों का वास्ता इंसानी जिंदगी के तजुर्बों से सीधा-सीधा है। ग़ुबार-ए-दिल के इस गुलदस्ते के दस्ताकर मतलब शायर का नाम ख़ुमार देहलवी है। यह शेर उन्हीं का है कि भुला के नफ़रतें हर इक से प्यार करना है, ये अपने आप से क़ौल-ओ-क़रार करना है। वाकई आज के समय में जब हर आदमी परेशान है, तनाव में है, और यही परेशानी, यही तनाव हम सबको गुस्सैल बना रहा है। कुछ लोग अपने फायदे के लिए इन नफरतों को हवा दे रहे हैं, तब ख़ुमार देहलवी कहते हैं कि भुला के नफ़रतें हर इक से प्रयार करना है, ये अपने आप से क़ौल-ओ-क़रार करना है। मतलब हमें नफ़रतें भुलाकर सभी से प्यार करना चाहिए और यह क़ौल मतलब कसम और क़रार मतलब वादा हम सबको ख़ुद से करना होगा कि हम अब किसी से नफ़रत नहीं करेंगे, बल्कि सबसे प्यार करेंगे। ख़ुमार लिखते हैं- इंलानियत का बस ये तक़ाज़ा है ऐ “ख़ुमार”, वो दुश्मनी करें, तू मगर उनसे प्यार कर। एक जगह वो लिखते हैं कि ग़ैर को अपना बनाना चाहिए, यह हुनर भी सबको आना चाहिए।
ऐसा नहीं कि ख़ुमार देहलवी का दिल नहीं टूटा है, लेकिन उन्होंने उसकी शिकायत कुछ यूँ अपने आप से ही की है कि किसी ने प्यार का यूँ भी सिला दिया मुझको, मैं फूल जैसा था पत्थर बना दिया मुझको। कभी शायर ने अपने दिल समझाया है और किसी से कहा है कि समझा रहा हूँ दिल को मेरा ऐअतबार कर, वो लौटकर न आयेंगे मत इंतिज़ार कर। तो कहीं लिखा है कि ऐसा नहीं कि तुमसे मुहब्बत नहीं मुझे, दरअस्ल बात ये है कि फ़ुर्सत नहीं मुझे। इस शायरी के अलावा ख़ुमार देहलवी की शायरी के जरिए जिंदगी के कई रंगों को बड़े करीब से देखा जा सकता है। उनकी शायरी में गजब की बात यह है कि उसमें जिंदगी के हर तरह के तजुर्बे हैं। वो लिखते हैं कि जब हमारी जेब में पैसा न था, तब तलक अपना कोई अपना न था।
इसी प्रकार जो लोग अपने और पराये का भेदभाव करते हैं, उनके उलट ख़ुमार लिखते हैं कि कभी देखा नहीं अपना या पराया हमने, फ़र्ज़-ए-इंसानी बहरतौर निभाया हमने। जिंदगी के तीखे अनुभवों को उन्होंने कुछ ऐसे बयां किया है कि क़िस्मत ही उसके साथ अगरचे दग़ा करे, फिर ये बताए कोई कि इंसान क्या करे। हमको तो बनके रहना है आईना दोस्तो, चाहे किसी के हाथ में पत्थर रहा करे। रहेगा सामने मेरे ये मर्हला कब तक, ख़ुशी के लम्हों का देखूँगा रास्ता कब तक। महाजनों से मिलेगी निजात कब जाने, पिएँगे ख़ून किसानों का ये भला कब तक।
ख़ुमार देहलवी की शायरी में देश के ग़रीब, दबे कुचले तबके के परेशान लोगों की परेशानी को जिस तरीके से सबके सामने रखा गया है वह कोई मामूली काम नहीं है, उसकी सराहना की जानी चाहिए।
समीक्षा :
किताब का नाम : ग़ुबार-ए-दिल
शायर का नाम : ख़ुमार देहल्वी
प्रकाशक : श्वेतांशु प्रकाशन, न्यू महावीर नगर,
नई दिल्ली- 110018
किताब का मूल्य : 250/- रुपये