अडानी समूह द्वारा प्रतिभूति बाजार में मानदंडों के कथित उल्लंघन में संभावित नियामक विफलता की जांच के लिए एक समिति बनाने के भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्पष्ट रूप से स्वागत करना आसान नहीं है। जबकि न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि समिति का संविधान भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) को उसकी शक्तियों और जिम्मेदारियों से वंचित नहीं करेगा। इसमें एक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि क्या उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली समिति की आवश्यकता है?
यदि न्यायालय ने प्रगति रिपोर्ट मांगकर और अंतिम परिणाम का आकलन करने के लिए विशेषज्ञ सहायता मांगकर सेबी की जांच की निगरानी करने के लिए चुना होता, तो कारण बेहतर ढंग से पूरा किया जा सकता था। पैनल के काम का दूसरा पहलू- नियामक ढांचे को मजबूत करने के उपायों का सुझाव देना, विधायिका के लिए छोड़ा जा सकता था। निराशाजनक यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सीलबंद लिफाफे में पैनल की रिपोर्ट मांगी है। जाहिर है यह समान समितियों के एक जैसे परिणाम (न्याय) को लेकर विश्वास पैदा नहीं करता है। उदाहरण के लिए पेगासस मामला। इसी तरह ,अन्य समितियों के फैसले का परिणाम एक जैसा विश्वास को प्रेरित नहीं करता है। यह आदेश समिति से उन कारकों की पहचान करने के लिए भी कहता है, जिनके कारण बाजार में अस्थिरता आई। हालांकि हिंडनबर्ग के खुलासे के बाद खुदरा निवेशकों को होने वाले गंभीर नुकसान को कंपनियों के आचरण से ध्यान हटाने के लिए रेड हेरिंग नहीं बनना चाहिए। निवेशक सुरक्षा सेबी के कार्यों में से एक है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कोई भी उपाय बाजार की ताकतों के विकास के प्रति संवेदनशील प्रतिक्रिया के खिलाफ गारंटी नहीं दे सकता है। अडानी समूह और सरकार के लिए यह समीचीन हो सकता है कि वे एक शत्रुतापूर्ण शॉर्ट-सेलर द्वारा देश और उसके कॉर्पोरेट चैंपियन के खिलाफ एक कथित साजिश पर दोष लगाने के लिए निवेशकों के नुकसान को उजागर करें। लेकिन न्यायालय का ध्यान सेबी के आचरण और स्वतंत्र कार्यप्रणाली पर होना चाहिए, जिसे संरक्षित करके ही निवेशकों को बाजार में हेराफेरी करने वालों से बचाया जा सकता है।