गीत-अकिंचन हूँ कोई भिखारी नहीं हूँ

गगन चन्द्रमा मेरे भुजपाश में हैं,

मुझे चांदनी आकर नहला रही है।

दिवाकर करे मेरे घर की मजूरी,

मुझे नींद ले गोद बहला रही है

बधिक हूँ मैं तम का

शिकारी नहीं हूँ।

अकिंचन हूँ कोई भिखारी नहीं हूँ।

मेरा नाम क्या है विनय का हिमालय,

मुझे गर्व की गंध भाती नहीं है।

मेरे द्वार आती पवन हाथ खाली,

बिना गीत उपहार जाती नहीं है।

चढ़ाता हूँ जल

पर पुजारी नहीं हूँ।

अकिंचन हूँ कोई भिखारी नहीं हूँ।

मेरे स्वर में बधता है ब्रह्मांड पूरा,

स्वयंभू मनीषी रहा नाम मेरा।

अधरपान करके निशा कामिनी का,

जगाता हूँ जग में मैं स्वर्णिम सवेरा।

अधर वेणु मेरे

मुरारी नहीं हूँ।

अकिंचन हूँ कोई भिखारी नहीं हूँ।

मेरे मन में इक आग सी जल रही है।

सरस मृदु परस की कमी खल रही है।

समर्पण का कंगन कलाई में पहनों

मेरी भावना मोम बन गल रही है।

धरा से जुड़ा हूँ 

अटारी नहीं हूँ 

अकिंचन हूँ कोई भिखारी नहीं हूँ।

……………ओंकार त्रिपाठी, दिल्ली

Related Posts

About The Author